पुन: घिरे संकट के बादल,
इसीलिये मन भारी है;
किन्तु धर्मध्वज की छाया में
अन्तिम विजय हमारी है।
यही अटल विश्वास फूंकता
पुन: हिन्दु में नव उत्साह,
कुटिल कुलक्षित राष्ट्रद्रोहियों
से रण की तैयारी है॥
हिन्दु अस्मिता के गौरव पर,
जो प्रहार करते जाते;
राष्ट्र कल्पना से अनजाने,
गीत सैक्युलर हैं गाते।
जाति पंथ क्षेत्र मजहब में,
बांट दिये भारतवासी;
हिन्दु या भारत है केवल,
अब कुछ लोगों की थाती॥
एक विभाजन से अब,
करते दूजे की तैयारी है, किन्तु........।
है अपना भी दोष भुलाये,
हैं अपनी संस्कृति इतिहास,
हम संवेदनशून्य हो रहे,
जब होता अपना उपहास।
परकीयों ने नहीं निजों ने,
किया राम पर ही आक्षेप;
यही धर्मनिर्पेक्ष नीति है,
यही अशुभ इसका संकेत॥
धर्महीन होगा भारत तो,
अपनी जिम्मेदारी है, किन्तु.............।
हमने शंकर बन विष पीकर,
शिव बनकर कल्याण किया,
शरणागत पापी विद्रोही,
को भी अभय का दान दिया।
भूभागों पर नहीं मनों पर,
विजय प्राप्त करने वाले;
किन्तु नहीं काल से भी हम,
रण में हैं डरने वाले॥
हुए अचेतन तो समझो अब,
काल हमीं पर भारी है, किन्तु.......।
हमने कब विदेश में जाकर,
किसको दास बनाय है?
निज विचार विश्वास रोप कर,
किसका धर्म डिगाया है।
तो भी परकीयों ने आकर,
हाथ लिये नग्न तलवार;
काटे अगणित शीश हिन्दु के,
स्मरण रहे वह अत्याचार॥
अब भी पोप व जेहादी की,
वही कुटिलता जारी है, किन्तु.....।
गंगा को Ganges मन्दिर को,
बुतख़ाना कहने वालो,
छोड़ नेह आंग्ल उर्दू का,
निज भाषा को अपना लो।
दोनों पराधीनता की और्,
परकीयों की भाषा हैं;
उनका स्वार्थ सिद्ध हो तो हो,
अपने लिये निराशा हैं॥
निज संस्कृति व निज भाषा पर,
कुटिल आक्रमण जारी हैं, किन्तु........सौजन्य से ( डॉ. जय प्रकाश )
Dec 10, 2008
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment